Latest News

** For Peer Reviewed, UGC App, UGC CARE, Scopus and WoS (M) 8708927219 (W) 9034872290

Categories

QR Code

Visitor Counter

Large Visitor Map

S.No Particular Pdf Page No.
1
  • ’’ग्रामीण भारत को सशक्त बनाना रू पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका का आकलन’’


Komal, Dr. Kamlesh Rathore

Abstract: 1992 में पंचायती राज संस्थानों को संवैधानिक स्थिति प्राप्त हुई। ये संस्थान स्थानीय स्वशासन प्रदान करने के मुख्य संस्थान रहे हैं जो सरकार की प्रमुख योजनाओं और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। पंचायती राज संस्थानों ने केंद्र सरकार और राज्य सरकार की विभिन्न महत्वपूर्ण योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिए लोगों की भागीदारी बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह कहा जा सकता है कि पहले के पारंपरिक राजनीतिक और आर्थिक वातावरण और गाँवों का संरचना पंचायतों को शक्तिशाली बनाकर और सामर्थि्यक बनाने के माध्यम से एक अधिक उन्नत और प्रगतिशील संरचना में परिवर्तित हो गया है।1992 का 73वां संशोधन अधिनियम भारत में घास के रूप में लोकतांत्रिक संस्थानों के विकास में एक प्रबल कदम है। यह प्रतिनिधित्वात्मक लोकतंत्र के स्थान पर सक्रिय भागीदारिक लोकतंत्र को लाता है। पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण लोगों को सशक्तिकरण में व्यापक परिवर्तन लाया है,


1-11
2
  • पंडित दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक विचार


डॉ. अनिल नानाजी चिकाटे

Abstract: भारत के स्वतंत्रता के बाद के युग में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भारतीय जनसंघ और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की वैचारिक नींव को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके राजनीतिक दर्शन का केंद्र एकात्म मानववाद की अवधारणा थी, जिसका उद्देश्य सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और सामाजिक-आर्थिक सुधारों के माध्यम से व्यक्तिगत कल्याण को सामाजिक उन्नति के साथ एकीकृत करना था। यह शोध पत्र उपाध्याय के राजनीतिक विचारों की प्रगति में गहराई से उतरता है, एक आत्मनिर्भर भारत के लिए उनके दृष्टिकोण की जांच करता है और समकालीन भारतीय राजनीति पर उनके स्थायी प्रभाव का विश्लेषण करता है। उनके लेखन, भाषणों और नीति प्रस्तावों की व्यापक खोज के माध्यम से, यह अध्ययन भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को आकार देने में उपाध्याय के विचारों की स्थायी प्रासंगिकता को उजागर करना चाहता है।\r\n


12-19
3
  • Descriptive Study of Negation Comparing Between Modern Standard Arabic and Najdi Dialect


Dr. Haifa Almotiary

Abstract: \r\nThis paper clarifies the syntactic features of the different negation in the Najdi dialect and Standard Modern Standard Arabic. The Najdi dialect is a Saudi Arabian dialect that is spoken in the central region of the country. The study investigates the negation particles in Najdi la, ma, and mahub and it compares them to the negation particles laa, lam, lan, maa, and laysa in Modern Standard Arabic. I collected the data for Najdi dialect from the Arabic corpus via twitter. While for the Modern Standard Arabic, I adapted the categorization for the Modern Standard Arabic negation sentences from Alsalem’ study in 2012. The current study discusses the negation in Najdi dialect, and one has to consider the origin of these negations. These negations were developed from the standard modern Arabic. \r\n


20-32
4
  • The autobiographical writings of A Revathi explore the intersection of queer identity and politics


Dr. Sonam Kamboj1, Dr. Poonam Mor2, Aayushi3

Abstract: Despite being biologically male, A. Revathi, the prominent figure of the transsexual community in South India, felt and behaved like a woman from an early age. Her honest and brave self-portrayal, A Truth About Life, addresses some of the most important issues surrounding the sexuality of a "hijra", including the agony of feeling like a stranger and being labelled as "queer," "deviant," and "unnatural" by many despite the legal acceptance of third gender and the ongoing literary and social discourses on the fluid nature of sexual orientation and choices. She is tormented by a deep unease about being trapped in an inappropriate body and a "developing feeling of enthusiastic femaleness." Through an insider's account of the hijra community this autobiography is the first of its kind in India to depict a hijra life story my paper aims to examine important questions regarding transgender sexuality and the agency and bravery displayed by Revathi in fending off and enduring the horrors that a "hijra" must endure, such as abuse at the hands of family members, sexual assault and torture by police, as well as repeated displacements in the pursuit of true love and a dignified life.


33-46
5
  • पावरा समाजाची आर्थिक स्थिती: शैक्षणिक आणि सामाजिक संदर्भ


अनिल हिरामण जाधव, डॉ. सुचेता ज्योतीनाथ संकपाळ,

Abstract: कोणतीही व्यक्ती अथवा समाज समूहाचा आर्थिक विकास हा इतर अनेक मानवी जीवनाशी संबधित गोष्टींवर अवलंबून असतो. विशेष करून आदिवासी समाज हा पूर्वीपासूनच इतर समाज घटकांपासून वेगळा राहत आला आहे. वस्ती, वाडे, पाडे, जंगली भूभाग, माळरान, शेती इत्यादी आदिवासी समाजाची मुख्य निवासस्थाने राहिली आहेत. अशात त्यांचा आर्थिक विकास होणे सर्वार्थाने शक्य नाही. शासनाने त्यांच्यासाठी अनके योजना राबविल्या आहेत. मात्र त्या योजना प्रत्यक्षात कमी आणि कागदावरच जास्त दिसून येतात. विशेषकरून पावरा हा आदिवासी समाज महाराष्ट्रात मोठ्या प्रमाणावर आहे. आजही आर्थिक दृष्ट्या हा समाज मागासलेला दिसून येतो. योग्य सामाजीकरण न होणे, मर्यादित उत्पन्नाची साधने, व्यवसायाचे अपूर्ण ज्ञान, प्रबोधनाची कमी, प्रशिक्षण नसणे, योजनांची योग्य कार्यवाही न होणे अशी विविध करणे असली तरी मुख्य कारण हे शिक्षण नसणे हेच दिसून येते. आज आश्रमशाळा, मोफत जेवण व अभ्यास साहित्य पुरविणे तसेच विविध सुविधा दिल्या जात असल्या तरी या समाजातील साक्षरतेचे प्रमाण कमीच आहे. आजही हा समाज इतर परिसराशी जुळवून घेण्यास तेवढा उत्सुक दिसून येत नाही. शिक्षणाचे महत्व पटल्यास नक्कीच या समाजाचा विकास होण्यास मदत होणार आहे. वर्तमान स्थितीत हा समाज बऱ्यापैकी शिक्षण प्रवाहात आला असला तरी त्याचे फलित दिसून येत नाही आहे. अर्थातच आर्थिक स्थिती चांगली नसल्यामुळे हा समाज आपली मुलांना शिक्षण न देता कामावर पाठवण्यास आग्रही असतो. हळू-हळू या समाजाला शिक्षणाचे महत्व पटू लागले आहे ही एक सकारात्मक बाजू आहे. शिक्षणाचा प्रसार झाल्यास या समाजाचा आर्थिक विकास होण्यासही मदत होईल.


47-51
6
  • THE MENACE OF MOB LYNCHING IN INDIA AND ANTI-LYNCHING LAW


Dr. LakshLata Prajapati

Abstract: This research paper analyzes the criminal threat that results from this criminal injustice as well as mob lynching, which is against the law. As the current situation has been characterized by extremely smooth carelessness in the court system, executive and legislative systems, act to humanity and its various elements either through the Indian legal system or from a legal standpoint. Since it has given rise to unwelcome issues that are arising on both a national and international level, it poses a threat to humanity's nationality, culture, way of life, and ability to live in a peaceful and simple environment


52-69
7
  • सामाजिक मानदंडों पर सिनेमा का प्रभावः एक अध्ययन


Dr Ashok kumar

Abstract: अपने आरंभ से ही फिल्मों ने समाज को बहुत प्रभावित किया है। गोदार ने कहा था कि सिनेमा दुनियां का सबसे सुंदर छलावा है। सिंनेमा का समाज पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार से प्रभाव पड़ता है। फिल्मों ने समाज को गहराई से प्रभावित किया है। फिल्में समाज का दर्पण होती हैं ये समाज में व्याप्त बुराईयों और विसंगतियों को आम जन मानस के सामने प्रकट कर इसे समूल खत्म करने को प्रेरित करती हैं। फिल्मों के माध्यम से लोगों को जागरूक किया जाता है। फिल्में सामाजिक सरोकारों से परिपूर्ण होती हैं। परंतु वर्तमान समय में फिल्में सामाजिक सरोकारों से ज्यादा व्यावसायिकता की ओर ज्यादा अग्रसर हैं। इनका समाज और संस्कृति दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। प्रस्तुत शोध पर के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया गया है कि फिल्मों ने समाज को किस प्रकार से प्रभावित किया है।


70-77
8
  • FINDING THE REBEL: A POSTMODERN READING OF JOHN MILTON


Usha SK Raghupathula1,Yashavanta T.S.2, Akshay Satish3 and Sikha Appu4

Abstract: John Milton, a towering figure of 17th-century English literature, is best known for his epic poem Paradise Lost, which grapples with themes of free will, authority, and rebellion. His profound influence extends into the 21st century, shaping political discourse, religious debate, and literary criticism, with modern scholars increasingly examining his works through contemporary lenses such as postmodernism, feminism, and political theory. This paper offers a postmodern analysis of John Milton, positioning him as a rebel against the prevailing establishment of his time. By examining Milton's work, particularly Paradise Lost, through the lens of postmodern theory, the study highlights how Milton's critique of authority—both political and religious—challenges the grand narratives that dominated 17th-century England. The paper explores Milton's complex portrayal of rebellion, not only through characters like Satan but also through his personal defiance against monarchy and orthodoxy. In drawing connections between Milton’s resistance and postmodern scepticism towards metanarratives, this analysis revisits Milton's work as an anticipatory reflection of postmodern concerns. The paper argues that Milton’s disruption of established power structures parallels postmodern calls for decentralization, multiplicity, and subversion, thus identifying him as a proto-postmodern figure who embodies the rebel spirit against a rigid and hierarchical order.


78-83
9
  • विश्व की भाषाओं से अनुदित हिन्दी उपन्यास साहित्य


डॉ राजेन्द्र गंगाधरराव मालोकर

Abstract: ‘‘विश्व की भाषाओं से अनुदित हिन्दी उपन्यास साहित्य‘‘ एक महत्वपूर्ण अध्ययन है, जो हिन्दी साहित्य के विस्तार और विकास में अनूदित साहित्य के योगदान को दर्शाता है। यह अनुसंधान विभिन्न भाषाओं से अनूदित उपन्यासों की विशेषताओं, उनके विषयवस्तु और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए किया गया है। अनुवाद की प्रक्रिया न केवल साहित्य की सीमाओं को पार करती है, बल्कि पाठकों को विविध सांस्कृतिक अनुभवों से भी जोड़ती है। अनूदित उपन्यासों में न केवल कथानक और पात्रों की गहराई होती है, बल्कि ये विभिन्न समाजों की जटिलताओं, संघर्षों और मानवीय भावनाओं को भी प्रतिबिंबित करते हैं। उदाहरण के लिए, फ्रेंच, अंग्रेजी, स्पेनिश, और अन्य भाषाओं के उपन्यासों से अनुवादित रचनाएं, भारतीय संदर्भ में नई सोच और दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं।


84-91
Collaboration Partners
  • Indian Journals

  • Swedish Scientific
    Publications

  • The Universal
    Digital Library

  • Green Earth Research
    And Publishing House

  • Rashtriya Research Institute
    Of New Medical Sciences

Indexing By