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संस्कृत साहित्य में लोकोपयोगी शिक्षा
डॉ राज्यश्री मिश्रा
Abstract:
संस्कृत साहित्य न केवल प्राचीन भारतीय ज्ञान और संस्कृति का भंडार है, बल्कि इसमें ऐसी शिक्षाएं भी निहित हैं जो आज भी मानव जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी और प्रासंगिक हैं। "लोकोपयोगी शिक्षा" से तात्पर्य उन ज्ञान और मूल्यों से है जो व्यक्ति को समाज में कुशलतापूर्वक और नैतिक रूप से जीने, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने और एक सार्थक जीवन बिताने में सहायता करते हैं। संस्कृत साहित्य का अध्ययन इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। वेदों से लेकर नीतिशास्त्रों तक, संस्कृत साहित्य के विभिन्न अंगों में लोकोपयोगी शिक्षा के अनगिनत उदाहरण मिलते हैं। वेदों में ऋत और धर्म की अवधारणाएं व्यक्ति को ब्रह्मांडीय व्यवस्था के अनुरूप जीवन जीने और अपने सामाजिक एवं नैतिक दायित्वों को समझने की प्रेरणा देती हैं। उपनिषदों का आत्मज्ञान और "वसुधैव कुटुम्बकम्" का विचार व्यक्ति को संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में देखने की शिक्षा देता है। यह भावना आज के वैश्वीकृत युग में अत्यंत महत्वपूर्ण है। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य न केवल मनोरंजक कथाएं हैं, बल्कि ये आदर्श चरित्रों और नैतिक के माध्यम से जीवन के महत्वपूर्ण सबक सिखाते हैं। राम का पितृभक्ति, सत्यनिष्ठा और न्यायप्रियता का आदर्श हो या युधिष्ठिर की धर्मपरायणता, ये चरित्र व्यक्ति को सदाचार और कर्तव्यनिष्ठा के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। इसी प्रकार, भगवत गीता में कर्मयोग का सिद्धांत व्यक्ति को निष्काम भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करने और जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन बनाए रखने की शिक्षा देता है।