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'सेज पर संस्कृत 'उपन्यास में धर्म और संस्कृति के बीच संघर्षरत नारी जीवन की अभिव्यक्ति
राम बिलास यादव
Abstract:
स्त्री प्रत्येक युग में समाज एवं साहित्य का अभिन्न अंग रही है। समाज और साहित्य से स्त्री को अलग करने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। साहित्य, कला और दर्शन से स्त्री का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है कि उसके अभाव में सभ्यता की कल्पना संभव नही है। पुराणों और संस्कृत महाकाव्यों में स्त्री अत्यन्त गरिमामयी रुप में चित्रित हुई है। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में स्त्री को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है तथा उसे देवी के समान स्थान दिया गया है- "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।" अर्थात् जहाँ नारियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, वहाँ स्वयं ईश्वर का निवास होता है।
मुख्य शब्द: नारी जीवन, 'सेज पर संस्कृत, धर्म और संस्कृति
प्रस्तावना
आगे चलकर जैसे-जैसे परिस्थितियों में परिवर्तन आता गया, स्त्री के प्रति समाज के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आता गया। जहाँ वैदिक युग में स्त्री को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान मिला था, वहीं उसके बाद स्त्री के गौरव का निरन्तर अवमूल्यन होता रहा। जो स्त्री देवी थी अब वह मानवी बनकर रह गई। धीरे-धीरे पुरुष-प्रधान समाज अपने प्राचीन आदर्शों को भूलने लगा। अब पुरुष के लिए स्त्री मात्र भोग्या रह गई। पुरुष अपनी स्वच्छन्दता का उपभोग करता रहा तथा स्त्री वर्जनाओं की परिधि में क़ैद रही।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखिका सीमोन के अनुसार "स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है"। स्त्री को बचपन से ही मानसिक तौर पर उसके स्त्री होने का अहसास दिलाया जाता है। पितृ-सत्तात्मक समाज स्वयं की सत्ता को बनाये रखने के लिए स्त्री को जन्म से ही अनेक नियमों से घेर देता है। सीमोन लिखती हैं, "औरत जन्म से ही औरत नहीं होती, बल्कि औरत बनाई जाती है। कोई भी जैविक, मनोवैज्ञानिक या आर्थिक नियति आधुनिक स्त्री के भाग्य की अकेली नियन्ता नहीं होती।"
जैसे-जैसे पश्चिमी चिन्तन तथा जीवन-शैली का प्रभाव भारतीय समाज पर पड़ा वैसे-वैसे स्त्री वर्जनाओं को तोड़ने में सक्षम होने लगी। शिक्षा, विज्ञान और सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तनों से स्त्री की स्थिति में परिवर्तन आने लगा। आधुनिक शिक्षित स्त्री अपने अधिकारों के प्रति जागरुक हुई, जिससे वह प्राचीन रुढ़ियों से मुक्त होने का प्रयास करने लगी। आधुनिक युग में आर्थिक उदारीकरण, सूचना-प्रसारण की नई विधियों आदि ने साहित्य को पूर्णरुपेण परिवर्तित कर दिया। पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव तथा नवीन सांस्कृतिक बोध के कारण नवीन दृष्टि का जन्म हुआ। पुरुषों के वर्चस्व का खंडन हुआ तथा हाशिए पर धकेल दी गई स्त्री समाज में अपना खोया हुआ स्थान ढूँढ़ने लगी। यहीं से स्त्री विमर्श की शुरुआत होती है। मूल रुप से स्त्री-मुक्ति के आस-पास केंद्रित रहने वाला साहित्य स्त्री विमर्श माना गया है। हिन्दी-साहित्य के स्त्री विमर्श के सम्बन्ध में कृष्णदत्त पालीवाल लिखते हैं, "स्त्री की व्यथा पर आधुनिक काल के सभी रचनाकारों ने लेखनी उठाई है। ... लोक हृदय और लोक चिन्ता रचनाकर्ता की सच्ची पहचान है। ... साहित्य हमारे मानुष भाव की रक्षा का प्रयत्न है-जो हमें बेहतर मनुष्य बनाता है-भाव परिष्कार करता है और मनुष्यता की उच्च भूमि पर ले जाकर खड़ा कर देता है।"