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पातंजल योगदर्शन में ईश्वर का स्वरूप
डाॅ राज्यश्री मिश्रा
Abstract:
पातंजल योगदर्शन भारतीय दर्शन की छह प्रमुख शाखाओं में से एक है, जो योग के व्यवस्थित और वैज्ञानिक सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है। महर्षि पतंजलि द्वारा रचित यह ग्रंथ योग के आठ अंगों (अष्टांग योग) का विस्तृत वर्णन करता है, जिसका अंतिम लक्ष्य कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति है। इस दार्शनिक प्रणाली में ईश्वर का एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान है। अन्य भारतीय दर्शनों की तुलना में, पातंजल योगदर्शन में ईश्वर की अवधारणा कुछ विशिष्टताओं को लिए हुए है। योगसूत्र के प्रथम अध्याय के 23वें सूत्र में ईश्वर का परिचय देते हुए कहा गया है: "क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।" अर्थात्, ईश्वर एक विशेष पुरुष (पुरुषविशेष) है जो क्लेशों (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश), कर्मों (अच्छे-बुरे कर्मों), विपाक (कर्मों के फल) और आशयों (संस्कारों के संग्रह) से सर्वथा अपरामृष्ट (अछूता) है। ईश्वर को सामान्य पुरुषों से भिन्न एक विशेष पुरुष के रूप में वर्णित किया गया है। यहाँ 'पुरुष' शब्द चेतना या आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह सामान्य जीवात्माओं से भिन्न है जो कर्मों के बंधन में बंधे हुए हैं। ईश्वर पाँच प्रकार के क्लेशों - अविद्या (अज्ञान), अस्मिता (अहंकार), राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा) और अभिनिवेश (जीवन की इच्छा) से पूर्णतः मुक्त है। ये क्लेश ही मनुष्य के दुखों और बंधनों का कारण बनते हैं। ईश्वर किसी भी प्रकार के कर्मों में लिप्त नहीं होता, न अच्छे और न बुरे। इसलिए वह कर्मों के फल (विपाक) से भी अप्रभावित रहता है। सामान्य जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुख भोगती है, लेकिन ईश्वर इन बंधनों से परे है।